पानीपत की तीसरी लड़ाई: मराठों की 3 गलतियाँ और भारत का बदलता भाग्य

जानिए पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों ने कौन सी 3 बड़ी गलतियाँ कीं, जिसके कारण वे सिर्फ एक दिन में ही जंग हार गए और इसका भारत के भाग्य पर क्या असर पड़ा।

Aug 22, 2025 - 12:53
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पानीपत की तीसरी लड़ाई: मराठों की 3 गलतियाँ और भारत का बदलता भाग्य
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की हार के कारण और उनका भारतीय इतिहास पर प्रभाव।

पानीपत की तीसरी लड़ाई: मराठों की 3 बड़ी गलतियों ने कैसे बदला भारत का भाग्य?

भारत के इतिहास में पानीपत का मैदान हमेशा से निर्णायक रहा है। जब-जब यहाँ लड़ाई हुई, तब-तब भारत का भाग्य बदल गया। 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की हार एक ऐसी घटना थी, जिसने भारत के भविष्य की दिशा तय कर दी। अगर मराठे यह जंग न हारते, तो भारत पर किसी विदेशी ताकत का कब्जा नहीं होता। इस ऐतिहासिक युद्ध में मराठों ने तीन बड़ी गलतियाँ की थीं, जिनके कारण पूरे भारत को जीतने वाले मराठे सिर्फ एक दिन में ही यह चंग हार गए और अपनी बड़ी सेना से हाथ धो बैठे। आइए, विस्तार से जानते हैं कि वे कौन सी गलतियाँ थीं जिन्होंने मराठा साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त किया।

मराठों की बढ़ती ताकत और पहली बड़ी गलती

18वीं सदी में औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य कमजोर पड़ रहा था, ऐसे में मराठा शक्ति अपने चरम पर थी। उन्होंने दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक, कर्नाटक से दिल्ली और पंजाब तक कई हिस्से जीत लिए थे। उस समय मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय भले ही बादशाह थे, पर वे मराठों के कठपुतली बनकर रह गए थे। पेशवा बालाजी बाजीराव के मन में पूरे भारत को जीतने की इच्छा थी। उत्तर में रघुनाथ राव के नेतृत्व में मराठों ने लाहौर, मुल्तान और कश्मीर तक जीत लिया था, कंधार जीतना बाकी था। इसी दौरान बालाजी राव ने एक बड़ी गलती की। उत्तर भारत में अहमद शाह अब्दाली और दक्षिण में निजाम, ये दो बड़े खतरे थे। कश्मीर जीतने के बाद, बालाजी राव ने निजाम से लड़ने के लिए रघुनाथ राव को वापस बुला लिया, जिससे पंजाब में केवल 15,000 मराठे बचे रह गए। विशेषज्ञों का मानना है कि दो मोर्चों पर एक साथ युद्ध लड़ना बहुत मुश्किल होता है, खासकर जब अब्दाली जैसे योद्धा सामने हों, जिसने भारत पर पाँच बार आक्रमण कर दिल्ली को एक महीने तक लूटा था। रघुनाथ राव के हटते ही अब्दाली को मराठों पर हमला करने का सुनहरा अवसर मिल गया।

अब्दाली की चालाकियाँ और सहयोगियों का छूटना

अब्दाली ने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया। उसने पंजाब के रास्ते मराठों पर हमला शुरू कर दिया और रोहिलखंड के नवाब नजीब उद दौला को अपने साथ मिला लिया। यही नहीं, अवध के नवाब शुजा उद दौला, जिसे मराठों ने खुद दिल्ली का गवर्नर बनाया था, उसे भी अब्दाली ने इस्लामी भाईचारे की दुहाई देकर अपनी तरफ कर लिया। शुजा उद दौला के पास 50,000 की घुड़सवार सेना थी और जरूरत के वक्त वह मराठों के खिलाफ खड़ा हो गया, जो मराठों के लिए एक बड़ा झटका था। इस तरह, अब्दाली 80,000 की सेना लेकर आगे बढ़ा।

सदाशिवराव भाऊ की दूसरी चूक: सेना संग परिजन

खबर मिलते ही पेशवा बालाजी राव ने अपने भाई सदाशिवराव भाऊ को अब्दाली से लड़ने का आदेश दिया। सदाशिवराव ने 1760 में उदगिरकर में निजाम की सेना को हराया था, इसलिए पेशवा को लगा कि वह अब्दाली को भी हरा देंगे। लेकिन पंजाब के लिए कूच करते समय सदाशिवराव से दूसरी बड़ी गलती हुई – उन्होंने अपने साथ महिलाओं और बच्चों को भी ले लिया। ये युद्ध लड़ने वाले लोग नहीं थे। जाट राजा सूरजमल ने उन्हें सलाह दी कि इतनी बड़ी भीड़ साथ लेकर चलने से आगे दिक्कतें हो सकती हैं और उन्हें चंबल नदी के पास छोड़ देना चाहिए, जिससे लड़ाई में मदद मिलेगी, लेकिन सदाशिवराव ने यह सलाह ठुकरा दी। कहा जाता है कि उनकी 70,000 की सेना के साथ लगभग 1 लाख ऐसे लोग थे जिन्हें युद्ध लड़ना नहीं आता था। ये पारिवारिक सदस्य और तीर्थ यात्रा पर निकले हुए लोग थे।

दिल्ली में फँसने का जाल और रसद की कमी

मराठा सेना जैसे-जैसे आगे बढ़ी, उसमें महेंद्र ले, शमशेर बहुर पवार, बड़ौदा के गायकवाड़ और माने शवर जैसे कई मराठी सहयोगी जुड़ते गए। लेकिन दिल्ली उनके पक्ष में नहीं थी, क्योंकि मराठों का बढ़ता कद उनके लिए चिंता का विषय था। अब्दाली की सेना यमुना के उस पार थी और सदाशिव की इस पार। शुरुआत में मराठों को जीत मिली। उन्होंने हरियाणा के कुंजपुरा में अब्दाली के किले को ध्वस्त कर दिया और कमांडर कुतुब शाह सहित लगभग 10,000 अफगानों को मार गिराया। मराठों ने कुतुब शाह का कटा हुआ सिर लेकर जश्न मनाया, लेकिन इस हार ने अब्दाली को गुस्से से भर दिया। उसने बागपत के रास्ते से यमुना पार की और संभलखा के पास डेरा डाल लिया। मराठे अब हर तरफ से घिर गए थे – न तो दिल्ली जा सकते थे, न पीछे हट सकते थे। पूरी मराठा फौज पानीपत में फंसी रह गई। धीरे-धीरे खेमे में रसद खत्म होने लगी, वहीं दूसरी ओर अब्दाली को रोहिलखंड का नवाब नजीब उद दौला लगातार रसद पहुंचा रहा था। सितंबर 1760 में सदाशिव राव ने पेशवा को मदद के लिए चिट्ठी लिखी, लेकिन मदद नहीं पहुँच पाई। खेमे के घोड़े भूख से मरने लगे। ऐसी हालत में सैनिकों ने सदाशिवराव भाऊ से आर या पार की लड़ाई लड़ने की बात कही।

युद्ध का निर्णायक दिन और तीसरी घातक गलती

14 जनवरी 1761 को मकर संक्रांति के दिन, सदाशिव की सेना ने अंतिम लड़ाई के लिए आगे बढ़ना शुरू किया। अब्दाली की सेना ने आधे चाँद के आकार में कूच किया। युद्ध की शुरुआत में इब्राहिम गर्दी के प्रशिक्षित सैनिकों ने फ्रांसीसी बंदूकों और तोपों से अब्दाली की सेना के पैर उखाड़ दिए। लेकिन यह आक्रमण लगातार नहीं चल सका, क्योंकि चारों तरफ से घिरी मराठा सेना के पीछे अब्दाली ने हजारों सैनिक और भेज दिए। यहीं पर मराठों से तीसरी और अंतिम गलती हुई – विश्वास राव मारे गए। उन्हें मरता देख सदाशिवराव बेहद भावुक हो गए। उन्होंने अपना हाथी छोड़ दिया और घोड़े पर सवार होकर अपने बेटे के पास पहुँच गए। जब मराठा सेना ने देखा कि भाऊ अपने हाथी पर नहीं हैं, तो सेना में खलबली मच गई। इसके बाद अफगान सेना ने कोई मौका नहीं दिया। शाम 4 बजे तक युद्ध समाप्त हो गया, जिसमें कहा जाता है कि 1 लाख लोग मारे गए थे।

पानीपत का ऐतिहासिक परिणाम: भारत के भाग्य पर असर

पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को दक्षिण और उत्तर में एक साथ लड़ाई लड़ने की भारी कीमत चुकानी पड़ी। अगर इस युद्ध में अब्दाली की हार हो जाती, तो हिंदुस्तान पर दोबारा किसी विदेशी ताकत का कब्जा नहीं हो पाता। हालांकि, आगे चलकर मराठा ताकत फिर से उठ खड़ी हुई, लेकिन पानीपत की हार ने भारत की गद्दी उनसे छीन ली थी। इस हार ने भारत के राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया और अंग्रेजों को भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने का रास्ता साफ कर दिया।

FAQs

Q1: पानीपत की तीसरी लड़ाई कब और किसके बीच हुई थी? पानीपत की तीसरी लड़ाई 14 जनवरी 1761 को अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच हुई थी। इस युद्ध में मराठों को भारी नुकसान हुआ और वे हार गए।

Q2: मराठों की हार का मुख्य कारण क्या था? मराठों की हार के मुख्य कारणों में दो मोर्चों पर युद्ध लड़ना, सदाशिवराव भाऊ का परिजनों को साथ ले जाना, रसद की कमी और विश्वास राव की मृत्यु के बाद सदाशिवराव का भावनात्मक रूप से कमजोर पड़ना शामिल हैं।

Q3: अहमद शाह अब्दाली को किन भारतीय शासकों का समर्थन मिला? अब्दाली को रोहिलखंड के नवाब नजीब उद दौला और अवध के नवाब शुजा उद दौला का समर्थन मिला था। शुजा उद दौला के पास 50,000 की घुड़सवार सेना थी।

Q4: पानीपत की लड़ाई में मराठा सेना के साथ कितने गैर-लड़ाके थे? कहा जाता है कि मराठा सेना के साथ करीब 1 लाख ऐसे लोग थे, जिनमें परिवार के सदस्य और तीर्थयात्री शामिल थे, जिन्हें युद्ध लड़ना नहीं आता था। यह बड़ी संख्या लॉजिस्टिक्स के लिए एक चुनौती बन गई।

Q5: पानीपत की तीसरी लड़ाई के भारत पर क्या दूरगामी परिणाम हुए? इस हार ने मराठों से भारत की गद्दी छीन ली और अंग्रेजों के लिए भारत में सत्ता स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया। कई इतिहासकारों का मानना है कि अगर मराठे न हारते तो भारत पर किसी विदेशी ताकत का कब्जा नहीं होता।


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