Iran-Russia Nuclear Deal: अमेरिका के प्रतिबंधों के बीच मॉस्को-तेहरान ने किया $25 बिलियन का मेगा परमाणु समझौता

Iran-Russia Nuclear Deal पर बड़ा अपडेट: रूस और ईरान ने 25 अरब डॉलर की डील साइन की, जिससे 4 नए पावर प्लांट बनेंगे। जानें सेंक्शंस के बावजूद यह समझौता क्यों अहम है और भारत का इस पर क्या रुख है।

Sep 27, 2025 - 18:44
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Iran-Russia Nuclear Deal: अमेरिका के प्रतिबंधों के बीच मॉस्को-तेहरान ने किया $25 बिलियन का मेगा परमाणु समझौता
ईरान-रूस परमाणु समझौता: प्रतिबंधों के बीच ऊर्जा सहयोग

दैनिक रियल्टी ब्यूरो | Date: | 27 Sep 2025

अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और ऊर्जा बाजार से जुड़ी इस बड़ी खबर ने दुनिया भर के आर्थिक और रणनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। वैश्विक प्रतिबंधों के गहरे दबाव के बावजूद, रूस और ईरान ने एक मेगा न्यूक्लियर डील (Iran-Russia Nuclear Deal) पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसकी कुल कीमत 25 अरब डॉलर (लगभग 2,07,675 करोड़ रुपये) आंकी गई है। इस ऐतिहासिक समझौते के तहत, रूस ईरान में चार नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों (न्यूक्लियर पावर प्लांट्स) का निर्माण करेगा। यह समझौता न केवल तेहरान और मॉस्को के ऊर्जा संबंधों को नई ऊंचाई देगा, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किस तरह अमेरिका और पश्चिमी दुनिया द्वारा प्रतिबंधित किए गए देश अब एकजुट होकर अपनी नई भू-राजनीतिक धुरी बना रहे हैं। यह घटनाक्रम विशेष रूप से भारत जैसे देशों के लिए महत्वपूर्ण है, जो ईरान के साथ पुराने व्यापारिक संबंध साझा करते हैं (जैसे चाबहार पोर्ट) और जो अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव का सामना कर रहे हैं। इस समझौते से जुड़े हर पहलू को समझना आज के दौर में हर जागरूक पाठक के लिए बेहद ज़रूरी है, क्योंकि यह वैश्विक शक्ति संतुलन में हो रहे बड़े बदलावों का स्पष्ट संकेत है। एक समय में, अमेरिका ने ही ईरान को बिजली बनाने के लिए पहला परमाणु रिएक्टर दिया था। आज जब अमेरिका ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगा रहा है, तब रूस के साथ यह साझेदारी पश्चिमी प्रतिबंधों को सीधी चुनौती दे रही है, और यह समझने की आवश्यकता है कि आखिर यह डील कैसे संभव हुई और इसके पीछे कौन सी गहरी रणनीति काम कर रही है।


Iran-Russia Nuclear Deal: 25 अरब डॉलर के समझौते की पूरी कहानी

ईरान और रूस के बीच 25 अरब डॉलर के इस परमाणु समझौते की घोषणा प्रतिबंधों के दौर में ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। ईरान की मीडिया एजेंसी इरना (IRNA) के अनुसार, रूस की सरकारी परमाणु निगम, रोसाटॉम (Rosatom) के साथ यह समझौता शुक्रवार को किया गया। इस डील के तहत, चार नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का निर्माण किया जाना है। इन प्लांट्स को ईरान के दक्षिण-पूर्वी होर्मोज़गन प्रांत के सिरिक क्षेत्र (Sirik Region) में 500 हेक्टेयर की साइट पर निर्मित किया जाएगा। यह समझौता ईरान के लिए ऊर्जा उत्पादन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इन चार प्लांट्स से कुल 5000 मेगावाट बिजली पैदा होने की उम्मीद है। समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए ईरान के परमाणु ऊर्जा संगठन के प्रमुख और ईरान के उपराष्ट्रपति मोहम्मद इस्लामी (Mohammad Eslami) मॉस्को गए थे, जहां उन्होंने रूसी अधिकारियों से मुलाकात की। इस्लामी ने कहा कि इस यात्रा के दौरान द्विपक्षीय सहयोग समझौतों पर हस्ताक्षर किए जाएंगे, जिसमें आठ अतिरिक्त परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण की योजना भी शामिल है। ईरान की यह महत्वाकांक्षी योजना है कि वह 2040 तक 20 गीगावाट परमाणु ऊर्जा क्षमता तक पहुंच जाए। कॉन्ट्रैक्ट संबंधी बातचीत पहले ही हो चुकी थी, और इस सप्ताह समझौते पर हस्ताक्षर होने के साथ ही परियोजना परिचालन चरणों में प्रवेश करेगी। यह डील उस समय हुई है जब रूस और ईरान दोनों ही अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं, ईरान 1979 से ही व्यापक प्रतिबंधों के अधीन है। यह समझौता दर्शाता है कि किस प्रकार दोनों राष्ट्र वैश्विक प्रतिबंधों के दबाव के बीच अपने ऊर्जा संबंधों को मजबूत कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि ईरान को बिजली बनाने के लिए पहला 5 मेगावाट का छोटा परमाणु रिएक्टर 1960 के दशक में स्वयं अमेरिका ने दिया था। इस ऐतिहासिक संदर्भ को देखते हुए, आज ईरान का रूस के साथ यह मेगा Iran-Russia Nuclear Deal करना, बदलते वैश्विक समीकरणों का एक बड़ा उदाहरण है।

अमेरिकी प्रतिबंधों के साये में क्यों बना यह नया गठबंधन?

अमेरिका की विदेश नीति और उसकी 'ब्लैकलिस्ट' करने की रणनीति ने ही रूस, ईरान और चीन जैसे देशों को एक-दूसरे के करीब आने पर मजबूर कर दिया है। अमेरिका ने इन देशों को यह कहकर अपने घर (वैश्विक व्यापार और सिस्टम) में आने से मना कर दिया है कि उनकी शक्ल पसंद नहीं है, जिसके जवाब में इन देशों ने मिलकर अपनी अलग 'पार्टी' शुरू कर ली है। भले ही यह नई पार्टी अमेरिका जितनी बड़ी न हो, लेकिन धीरे-धीरे यह बड़ी होती जाएगी। अमेरिका ने यह दृष्टिकोण अपनाया कि उसके यहां "दूध और शहद की नदियां बह रही हैं" और वह किसी को अंदर नहीं आने देगा। हालांकि, अमेरिकी यह भूल गए कि ये "दूध और शहद की नदियां" बह क्यों रही थीं; क्योंकि इसमें बाहर वालों का भी उतना ही योगदान था, जितना अमेरिकियों का। यही नीति ईरान के साथ भी अपनाई गई, जिस पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए। जब अमेरिका ने इन तीनों देशों को ब्लैकलिस्ट कर दिया, तो उनके पास सहयोग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।

  • सेंक्शंस का दबाव: रूस और ईरान दोनों ही पश्चिमी दुनिया के कड़े प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं, जिससे वे ऊर्जा और व्यापार के लिए वैकल्पिक मार्ग तलाश रहे हैं।
  • एलाइनमेंट का निर्माण: रूस और चीन, दोनों ही चाहते हैं कि ईरान से सभी प्रतिबंध हटा दिए जाएं, क्योंकि ईरान के साथ उनके दीर्घकालिक व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं।
  • यूएनएससी में समर्थन: 15 सदस्यीय यूएन सुरक्षा परिषद ने तेहरान पर स्थायी रूप से प्रतिबंध हटाने के एक प्रस्ताव को खारिज कर दिया था, जिसे रूस और चीन का समर्थन था, जबकि ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी इसका विरोध कर रहे थे। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि दुनिया दो गुटों में बंट रही है।

इस Iran-Russia Nuclear Deal को अंजाम देने के लिए 25 अरब डॉलर की फंडिंग कहां से आएगी, यह एक बड़ा सवाल है, खासकर तब जब ईरान 1979 से ही प्रतिबंधों के अधीन है। मेजर गौरव आर्य के अनुसार, यह फंडिंग केवल नकदी नहीं है; व्यापार कई चीजों में होता है, और चीन इसमें एक गारंटर के रूप में खड़ा है, जो यह सुनिश्चित करेगा कि काम पूरा हो।

परमाणु प्लांट निर्माण का लक्ष्य: 5000 मेगावाट और 20 गीगावाट की योजना

ईरान के ऊर्जा लक्ष्यों को प्राप्त करने में यह Iran-Russia Nuclear Deal एक मील का पत्थर साबित होगी। समझौते के तहत, सिरिक क्षेत्र में बनाए जाने वाले चार नए संयंत्रों से 5000 मेगावाट बिजली उत्पन्न होने की उम्मीद है। ईरान के उप-राष्ट्रपति मोहम्मद इस्लामी की मॉस्को यात्रा का मुख्य उद्देश्य द्विपक्षीय सहयोग समझौतों पर हस्ताक्षर करना था। इन समझौतों में आठ अतिरिक्त परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण की योजना भी शामिल है। तेहरान 2040 तक अपनी परमाणु ऊर्जा क्षमता को 20 गीगावाट तक पहुंचाना चाहता है, और यह समझौता इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य की ओर पहला ठोस कदम है। न्यूक्लियर ऊर्जा क्षमता का यह विस्तार ईरान को वैश्विक ऊर्जा बाजार में अपनी स्थिति मजबूत करने और आंतरिक ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में मदद करेगा, विशेष रूप से ऐसे समय में जब उस पर कड़े अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लागू हैं।

भारत की संप्रभुता और अमेरिकी टैरिफ का कड़वा सच

ईरान-रूस समझौते से उत्पन्न भू-राजनीतिक दबाव का एक सीधा असर भारत की विदेश नीति पर भी पड़ता है। नेटो प्रमुख (NATO Chief) ने एक बार दावा किया था कि अमेरिकी टैरिफ (50% टैरिफ) के प्रभाव के कारण दिल्ली को व्लादिमीर पुतिन को फोन करना पड़ा और अपनी रणनीति पूछनी पड़ी कि वे क्या करना चाहते हैं। हालांकि, इस दावे को भारत ने 'अस्वीकार्य' बताते हुए कड़े शब्दों में निंदा की।

नेटो चीफ द्वारा शब्दों के साथ खेलने का यह प्रयास था, जिसमें उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की कि मोदी जी अब रूस को फोन कर रहे होंगे क्योंकि उन पर 50% टैरिफ लगा है और वे रूस से पूछ रहे होंगे कि, "हम तुम्हारा समर्थन करते हैं, लेकिन अब तुम अपनी रणनीति बताओ"।

हालांकि, स्रोत सामग्री यह स्पष्ट करती है कि भारत पर टैरिफ रूस से तेल खरीदने के कारण नहीं आया। यह एक गलतफहमी है जिसे दूर करना आवश्यक है। भारत को यह कीमत किसी और देश की वजह से नहीं, बल्कि अपनी संप्रभुता (Sovereignty) और खुद-मुख्तारी को बुलंद रखने के लिए चुकानी पड़ रही है। भारत किसी भी विदेशी शक्ति, चाहे वह अमेरिका हो या कोई अन्य, को यह निर्धारित करने की अनुमति नहीं दे सकता कि भारत अपना व्यापार कैसे संचालित करेगा। यदि भारत को कहीं से सस्ता तेल मिल रहा है, तो भारत उसे खरीदेगा।

  • सस्ता तेल और घरेलू अर्थव्यवस्था: भारत रूस से सस्ता तेल खरीदता है, जिससे अरबों डॉलर की बचत होती है। हालांकि, आम आदमी को तेल की कीमतों में सीधी राहत न मिलने पर सवाल उठाए जाते हैं।
  • सरकार के खर्च: यह समझना जरूरी है कि सरकार को मनरेगा, उज्ज्वला योजना, 5 लाख तक के स्वास्थ्य बीमा (आरोग्य योजना) और एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) जैसी कई योजनाओं के लिए पैसा चाहिए। भारत में टैक्स देने वालों की संख्या बहुत कम है। इसलिए, जहां से पैसा आ सकता है (जैसे सस्ता तेल खरीदकर उसे रिफाइन करके बेचना), वहां से सरकार फंडिंग जुटाती है ताकि इन सामाजिक और कृषि योजनाओं को चलाया जा सके।

इसलिए, 50% टैरिफ को रूस से जोड़ना गलत है; यह भारत द्वारा अपनी विदेश नीति स्वतंत्र रूप से चलाने का परिणाम है, जिसे भारत को भुगतना भी चाहिए।

H1B वीजा विवाद: ग्लोबल वर्कफोर्स की वास्तविकता और भारत का पक्ष

वैश्विक दबाव का एक और महत्वपूर्ण बिंदु एच1बी (H1B) वीजा और इमिग्रेशन नीतियां हैं, जो सीधे तौर पर भारतीय पेशेवरों को प्रभावित करती हैं। अमेरिका द्वारा H1B वीजा पर भारी फीस (जैसे $100,000) लगाने और फार्मास्यूटिकल्स पर 100% टैरिफ जैसे कदमों पर भारत सरकार अमेरिका के साथ बातचीत कर रही है।

डोनाल्ड ट्रंप ने H1B वीजा और इमिग्रेशन को लेकर जो भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक माहौल बनाया है, वह उनकी सत्ता जाने के बाद भी नहीं हटने वाला। ट्रंप ने 'नफरत का पिटारा' (Pandora's Box) खोल दिया है, जिससे अमेरिकियों के मन में यह भावना बैठ गई है कि चीन ने मैन्युफैक्चरिंग में और भारत ने इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी में उनका निवाला छीन लिया है।

वास्तविक समस्या: विदेश मंत्री एस जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र के दौरान इस मुद्दे पर तार्किक बात की। उन्होंने कहा कि मांग और जनसांख्यिकी को देखते हुए कई देशों में राष्ट्रीय जनसांख्यिकी के आधार पर मांग पूरी नहीं हो सकती। अमेरिका में नवाचार (Innovation) और खोजों का पैमाना बहुत बड़ा है, जिसके लिए हजारों-लाखों प्रोग्रामरों की आवश्यकता होती है। अमेरिका में पैदा होने वाले या प्रशिक्षित होने वाले सॉफ्टवेयर प्रोग्रामरों की संख्या इस मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

  • आज की तारीख में, 6% अमेरिकी डॉक्टर भारतीय मूल के हैं
  • टेक फर्म H1B वीजा पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं, खासकर भारत से इंजीनियरों, वैज्ञानिकों और कोडर्स को काम पर रखने के लिए।
  • हाल के वर्षों में H1B कार्यक्रम में भारतीय अप्रवासी हावी रहे हैं, जो कुल प्राप्तकर्ताओं के 70% से अधिक हैं।
  • भारतीय मूल के अधिकारी Google, Microsoft और IBM जैसी शीर्ष अमेरिकी फर्मों का नेतृत्व कर रहे हैं।

यह अमेरिकी नागरिकों की नौकरी खाने का मामला नहीं है, बल्कि अमेरिका में 100 वैकेंसी होने पर सिर्फ 20 प्रोग्रामर उपलब्ध होने का मामला है। शेष 80 की आवश्यकता को पूरा करने के लिए ही H1B वीजा जैसे कार्यक्रम बनाए गए हैं।

डॉ. जयशंकर तार्किक रूप से बात कर रहे हैं, जबकि अमेरिका में ट्रंप ने भावनात्मक मामला बना दिया है, और जहां तर्क और भावना आमने-सामने होते हैं, वहां निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल होता है।


Conclusion

सारांश यह है कि ईरान और रूस ने 25 अरब डॉलर के Iran-Russia Nuclear Deal पर हस्ताक्षर करके वैश्विक प्रतिबंधों के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा खोल दिया है, जिसके तहत 4 नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का निर्माण किया जाएगा। यह कदम अमेरिका की 'ब्लैकलिस्ट' करने की नीति का सीधा परिणाम है, जिसने प्रतिबंधित राष्ट्रों को अपनी अलग धुरी बनाने पर मजबूर किया। दूसरी ओर, भारत अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए 50% अमेरिकी टैरिफ जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है, और यह समझना आवश्यक है कि यह कीमत रूस से तेल खरीदने के कारण नहीं, बल्कि अपनी स्वतंत्र विदेश नीति बनाए रखने के लिए चुकाई जा रही है। इसके अतिरिक्त, H1B वीजा विवाद अमेरिका में आवश्यक वर्कफोर्स की कमी और ट्रंप द्वारा फैलाई गई नस्लीय भावनाओं को दर्शाता है, जिसे दूर करने के लिए भारत तर्कसंगत समाधान की मांग कर रहा है। भविष्य की संभावना यह है कि जैसे-जैसे अमेरिका और पश्चिमी देश अपनी प्रतिबंध और इमिग्रेशन नीतियों में कठोरता बनाए रखेंगे, रूस-चीन-ईरान के बीच का यह गठबंधन (Alignment) और मजबूत होता जाएगा, जिससे वैश्विक शक्ति संतुलन में और अधिक बदलाव आएंगे। भारत, जो अपनी संप्रभुता के लिए मूल्य चुकाने को तैयार है, आने वाले समय में इन दोनों प्रतिस्पर्धी गुटों के बीच एक महत्वपूर्ण संतुलनकारी शक्ति के रूप में उभरेगा।


FAQs (5 Q&A):

Q1. Iran-Russia Nuclear Deal कितने डॉलर की है और इसके तहत क्या बनाया जाएगा?

A. Iran-Russia Nuclear Deal 25 अरब डॉलर (लगभग 2,07,675 करोड़ रुपये) की है। इस समझौते के तहत रूस ईरान के सिरिक क्षेत्र में चार नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का निर्माण करेगा। इन प्लांट्स से 5000 मेगावाट बिजली उत्पन्न होने की उम्मीद है, जो ईरान के ऊर्जा लक्ष्यों को पूरा करने में सहायक होगी।

Q2. अमेरिका और पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का Iran-Russia Nuclear Deal पर क्या असर पड़ा?

A. अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ही रूस और ईरान जैसे देश सहयोग करने के लिए प्रेरित हुए। दोनों राष्ट्रों पर लगे सेंक्शंस के बावजूद यह डील उनके ऊर्जा संबंधों को मजबूत करती है। रूस और चीन जैसे देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ईरान से प्रतिबंध हटाने का समर्थन करते हैं।

Q3. भारत पर 50% अमेरिकी टैरिफ क्यों लगाया गया? क्या यह रूस से तेल खरीदने के कारण था?

A. नहीं, यह गलतफहमी है कि भारत पर 50% टैरिफ रूस से तेल खरीदने के कारण लगा। भारत यह कीमत अपनी संप्रभुता (Sovereignty) और स्वतंत्र विदेश नीति को बुलंद रखने के लिए चुका रहा है, ताकि कोई भी बाहरी शक्ति भारत के व्यापार संचालन को निर्देशित न कर सके।

Q4. H1B वीजा विवाद में भारत का क्या रुख है और अमेरिका क्यों विदेशी प्रोग्रामर्स पर निर्भर है?

A. भारत ग्लोबल वर्कफोर्स के लिए एक अधिक स्वीकार्य मॉडल की मांग कर रहा है। अमेरिका को हजारों लाखों प्रोग्रामरों की आवश्यकता है, जिसे वह अपनी राष्ट्रीय जनसांख्यिकी से पूरा नहीं कर सकता। इसीलिए वह भारत जैसे देशों से इंजीनियरों और कोडर्स को काम पर रखने के लिए H1B वीजा पर निर्भर है।

Q5. ईरान 2040 तक परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में क्या लक्ष्य लेकर चल रहा है, जो Iran-Russia Nuclear Deal से जुड़ा है?

A. ईरान की योजना है कि वह 2040 तक अपनी कुल परमाणु ऊर्जा क्षमता को 20 गीगावाट (Gigawatt) तक पहुंचाएगा। मौजूदा Iran-Russia Nuclear Deal इसी लक्ष्य का हिस्सा है, जिसमें प्रारंभिक चरण में 5000 मेगावाट क्षमता के चार प्लांट बनने हैं, और भविष्य में आठ अतिरिक्त प्लांट बनाने की योजना है।

Dainik Realty News Desk Neeraj Ahlawat & Dainik Realty News के संस्थापक और मुख्य लेखक (Founder & Lead Author) हैं। वह एक दशक से अधिक समय से पत्रकारिता और डिजिटल मीडिया से जुड़े हुए हैं। राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति जैसे विविध विषयों पर उनकी गहरी समझ और निष्पक्ष रिपोर्टिंग ने उन्हें पाठकों के बीच एक भरोसेमंद नाम बना दिया है। पत्रकारिता के साथ-साथ Neeraj एक डिजिटल मार्केटिंग कंसल्टेंट भी हैं। उन्हें SEO, Google Ads और Analytics में विशेषज्ञता हासिल है। वह व्यवसायों, सामाजिक संगठनों और चैरिटी संस्थाओं को डिजिटल माध्यम से बढ़ने में मदद करते हैं। उनका मिशन है – सस्टेनेबल बिज़नेस, गैर-लाभकारी संस्थाओं और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने वाले संगठनों को सशक्त बनाना, ताकि वे सही दिशा में अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सकें। Neeraj Ahlawat का मानना है कि पारदर्शिता, विश्वसनीयता और निष्पक्ष पत्रकारिता ही किसी भी मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की सबसे बड़ी ताकत है। इसी सोच के साथ उन्होंने Dainik Realty News की शुरुआत की, जो आज पाठकों को सटीक, भरोसेमंद और प्रभावशाली समाचार उपलब्ध कराता है।